अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के 79वें जन्मदिन और अमेरिकी सेना की 250वीं वर्षगांठ के मौके पर आयोजित भव्य सैन्य परेड ने देश को एक बार फिर वैचारिक रूप से बांट दिया है। जहां एक वर्ग ने इसे सेना के सम्मान में एक ऐतिहासिक क्षण बताया, वहीं दूसरे पक्ष ने इसे "आक्रामक सैन्यवाद" और "तानाशाही की नकल" करार दिया।
शनिवार को वॉशिंगटन डीसी में आयोजित इस परेड में करीब 6,000 सैनिक, 128 टैंक, और अत्याधुनिक सैन्य उपकरणों का प्रदर्शन हुआ। इस आयोजन पर लगभग 690 लाख अमेरिकी डॉलर (करीब 575 करोड़ रुपये) खर्च हुए। राष्ट्रपति ट्रंप और फर्स्ट लेडी मेलानिया ट्रंप ने व्हाइट हाउस के दक्षिणी लॉन से यह परेड देखी, जिसके बाद आकाश में भव्य आतिशबाजी की गई।
परेड का उद्देश्य अमेरिकी सेना के गौरव को सम्मानित करना बताया गया, लेकिन आलोचकों ने इसे ट्रंप की "राजनीतिक ब्रांडिंग" बताया। डेमोक्रेट नेताओं, कई सामाजिक संगठनों और पूर्व सैन्य अधिकारियों ने इस आयोजन की आलोचना करते हुए कहा कि यह अमेरिका की लोकतांत्रिक और नागरिक परंपराओं के विपरीत है।
विरोधियों का कहना है कि ऐसी सैन्य परेडें आम तौर पर तानाशाही शासनों—जैसे कि उत्तर कोरिया या रूस—में देखी जाती हैं, न कि एक लोकतांत्रिक देश में।
ट्रंप समर्थकों और रिपब्लिकन नेताओं ने परेड को “देशभक्ति” और “सैनिकों के सम्मान का प्रतीक” करार दिया। उनका कहना है कि सेना की 250वीं वर्षगांठ पर इस प्रकार का आयोजन उपयुक्त था और इससे जवानों का मनोबल बढ़ा है।
परेड के समानांतर देशभर में ‘No Kings’ नामक विरोध प्रदर्शन भी आयोजित किए गए, जिनमें लाखों लोगों ने भाग लिया। इन प्रदर्शनों में ट्रंप पर ‘तानाशाही प्रवृत्ति’ अपनाने का आरोप लगाया गया और देश को लोकतंत्र के रास्ते पर बनाए रखने की मांग की गई।
इस सैन्य परेड ने जहां एक तरफ कुछ लोगों को गौरव का अनुभव कराया, वहीं दूसरी ओर यह अमेरिकी समाज में बढ़ती ध्रुवीयता और असहमति की गहरी तस्वीर भी पेश करता है। चुनावी वर्ष में इस तरह के आयोजनों का राजनीतिक असर क्या होगा, यह आने वाले महीनों में स्पष्ट होगा।